गुरुपोर्णिमा कविता
गुरूपौर्णिमा कविता PDF
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गुरुपौर्णिमा
जमलोय सर्व आज, पौर्णिमेला
वंदन आमुचे गुरुजनांना !!
आयुष्याच्या या टप्प्यावर, मी भक्कम उभा
कारण धरला होता, तुम्ही हात आमचा
एक उनाड-अजाण, होतो बच्चे आम्ही
घडलो सुजाण, तुमच्या आशीर्वादांनी
केली सुरुवात, हातचा वजाबाकींनी
हिशोब चुकतो, आयुष्याच्या घडामोडींनी
नव्हती ठाऊक तेव्हा, उत्तरं प्रश्नांची
दिल्या कित्येक परीक्षा, जेव्हा खेळलो जीवनाशी
होता तुमचा हात, आमच्या पाठीवरी
म्हणूनच जिंकलो आम्ही, कसोटी प्रसंगांची
~ पल्लवी कुंभार
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जमलोय सर्व आज, पौर्णिमेला
वंदन आमुचे गुरुजनांना !!
आयुष्याच्या या टप्प्यावर, मी भक्कम उभा
कारण धरला होता, तुम्ही हात आमचा
एक उनाड-अजाण, होतो बच्चे आम्ही
घडलो सुजाण, तुमच्या आशीर्वादांनी
केली सुरुवात, हातचा वजाबाकींनी
हिशोब चुकतो, आयुष्याच्या घडामोडींनी
नव्हती ठाऊक तेव्हा, उत्तरं प्रश्नांची
दिल्या कित्येक परीक्षा, जेव्हा खेळलो जीवनाशी
होता तुमचा हात, आमच्या पाठीवरी
म्हणूनच जिंकलो आम्ही, कसोटी प्रसंगांची
~ पल्लवी कुंभार
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गुरुपौर्णिमा
गुरु म्हणजे ज्ञानाचा उगम आणि अखंड वाहणारा झरा
गुरु म्हणजे निष्ठा आणि कर्तव्य
गुरु म्हणजे निस्सीम श्रद्धा आणि भक्ती
गुरु म्हणजे विश्वास आणि वात्सल्य
गुरु म्हणजे आदर्श आणि प्रमाणतेचे मूर्तिमंत प्रतिक
आजपर्यंत कळत - नकळतपणे ज्ञान देणाऱ्या सर्वांना आजच्या गुरुपौर्णिमेच्या दिवशी माझे वंदन
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गुरुपौर्णिमा
हर प्रकार से नादान थे तुम,
गीली मिट्टी के समान थे तुम।
आकार देकर तुम्हें घड़ा बना दिया,
अपने पैरों पर खड़ा कर दिया।
गुरु बिना ज्ञान कहां,
उसके ज्ञान का आदि न अंत यहां।
गुरु ने दी शिक्षा जहां,
उठी शिष्टाचार की मूरत वहां।
अपने संसार से तुम्हारा परिचय कराया,
उसने तुम्हें भले-बुरे का आभास कराया।
अथाह संसार में तुम्हें अस्तित्व दिलाया,
दोष निकालकर सुदृढ़ व्यक्तित्व बनाया।
अपनी शिक्षा के तेज से,
तुम्हें आभा मंडित कर दिया।
अपने ज्ञान के वेग से,
तुम्हारे उपवन को पुष्पित कर दिया।
जिसने बनाया तुम्हें ईश्वर,
गुरु का करो सदा आदर।
जिसमें स्वयं है परमेश्वर,
उस गुरु को मेरा प्रणाम सादर।
सौजन्य से - साभार- छोटी-सी उमर (कविता संग्रह)
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गुरुपौर्णिमा
गुरु को नित वंदन करो, हर पल है गुरूवार.
गुरु ही देता शिष्य को, निज आचार-विचार..
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विधि-हरि-हर, परब्रम्ह भी, गुरु-सम्मुख लघुकाय.
अगम अमित है गुरु कृपा, कोई नहीं पर्याय..
*
गुरु है गंगा ज्ञान की, करे पाप का नाश.
ब्रम्हा-विष्णु-महेश सम, काटे भाव का पाश..
*
गुरु भास्कर अज्ञान तम्, ज्ञान सुमंगल भोर.
शिष्य पखेरू कर्म कर, गहे सफलता कोर..
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गुरु-चरणों में बैठकर, गुर जीवन के जान.
ज्ञान गहे एकाग्र मन, चंचल चित अज्ञान..
*
गुरुता जिसमें वह गुरु, शत-शत नम्र प्रणाम.
कंकर से शंकर गढ़े, कर्म करे निष्काम..
*
गुरु पल में ले शिष्य के, गुण-अवगुण पहचान.
दोष मिटा कर बना दे, आदम से इंसान..
*
गुरु-चरणों में स्वर्ग है, गुरु-सेवा में मुक्ति.
भव सागर-उद्धार की, गुरु-पूजन ही युक्ति..
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माटी शिष्य कुम्हार गुरु, करे न कुछ संकोच.
कूटे-साने रात-दिन, तब पैदा हो लोच..
*
कथनी-करनी एक हो, गुरु उसको ही मान.
चिन्तन चरखा पठन रुई, सूत आचरण जान..
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शिष्यों के गुरु एक है, गुरु को शिष्य अनेक.
भक्तों को हरि एक ज्यों, हरि को भक्त अनेक..
*
गुरु तो गिरिवर उच्च हो, शिष्य 'सलिल' सम दीन.
गुरु-पद-रज बिन विकल हो, जैसे जल बिन मीन..
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ज्ञान-ज्योति गुरु दीप ही, तम् का करे विनाश.
लगन-परिश्रम दीप-घृत, श्रृद्धा प्रखर प्रकाश..
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गुरु दुनिया में कम मिलें, मिलते गुरु-घंटाल.
पाठ पढ़ाकर त्याग का, स्वयं उड़ाते माल..
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गुरु-गरिमा-गायन करे, पाप-ताप का नाश.
गुरु-अनुकम्पा काटती, महाकाल का पाश..
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विश्वामित्र-वशिष्ठ बिन, शिष्य न होता राम.
गुरु गुण दे, अवगुण हरे, अनथक आठों याम..
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गुरु खुद गुड़ रह शिष्य को, शक्कर सदृश निखार.
माटी से मूरत गढ़े, पूजे सब संसार..
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गुरु की महिमा है अगम, गाकर तरता शिष्य.
गुरु कल का अनुमान कर, गढ़ता आज भविष्य..
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मुँह देखी कहता नहीं, गुरु बतलाता दोष.
कमियाँ दूर किये बिना, गुरु न करे संतोष..
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शिष्य बिना गुरु अधूरा, गुरु बिन शिष्य अपूर्ण.
सिन्धु-बिंदु, रवि-किरण सम, गुरु गिरि चेला चूर्ण..
*
गुरु अनुकम्पा नर्मदा,रुके न नेह-निनाद.
अविचल श्रृद्धा रहे तो, भंग न हो संवाद..
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गुरु की जय-जयकार कर, रसना होती धन्य.
गुरु पग-रज पाकर तरें, कामी क्रोधी वन्य..
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गुरुवर जिस पर सदय हों, उसके जागें भाग्य.
लोभ-मोह से मुक्ति पा, शिष्य वरे वैराग्य..
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गुरु को पारस जानिए, करे लौह को स्वर्ण.
शिष्य और गुरु जगत में, केवल दो ही वर्ण..
*
संस्कार की सान पर, गुरु धरता है धार.
नीर-क्षीर सम शिष्य के, कर आचार-विचार..
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माटी से मूरत गढ़े, सद्गुरु फूंके प्राण.
कर अपूर्ण को पूर्ण गुरु, भव से देता त्राण..
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गुरु से भेद न मानिये, गुरु से रहें न दूर.
गुरु बिन 'सलिल' मनुष्य है, आँखें रहते सूर.
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टीचर-प्रीचर गुरु नहीं, ना मास्टर-उस्ताद.
गुरु-पूजा ही प्रथम कर, प्रभु की पूजा बाद..
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गुरु पूर्णिमा
सत्य की खोज में
किया मैंने
कुछ अलौकिक
और कुछ अजीबोगरीब
एक दिन हुआ
पूज्य गुरु का आगमन
भेद डाला उन्होंने
मेरा सारा ज्ञान
छड़ी से अपनी
छुआ दिव्य चक्षु को
और कर दिया मुझ में
मदहोशी का आह्वान
इस मदहोशी का
नहीं था कोई उपचार
पर बेशक खुल गए
मुक्ति के द्वार
देखा मैंने
इस भयानक रोग का भी
हो सकता है सहज संचार
फिर ले ली मैंने यह आजादी
फैलानी है इस मदहोशी को
इंसानियत में सारी।
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best
ReplyDeleteThank you
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